Tuesday 4 September 2012

yeh na thi hamari kismat........

दिखाई दिये यूं कि बेख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

जबीं सजदा करते ही करते गई
हक़-ए-बन्दगी हम अदा कर चले

परस्तिश की यां तक कि अय बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले

बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो यां से लहू में नहा कर चले 


- मीर ताकी मीर 
  
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर  न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई


-मिर्ज़ा ग़ालिब 

 नुक्‌तह-चीं है ग़म-ए दिल उस को सुनाए न बने
क्‌या बने बात जहां बात बनाए न बने

मैं बुलाता तो हूं उस को मगर अय जज़्‌बह-ए दिल
उस पह बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने

खेल सम्‌झा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए
काश यूं भी हो कि बिन मेरे सताए न बने

ग़ैर फिर्‌ता है लिये यूं तिरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि यह क्‌या है तो छुपाए न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो वह भले हैं तो क्‌या
हाथ आवें तो उंहें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन कि यह जल्‌वह-गरी किस की है
पर्‌दह छोड़ा है वह उस ने कि उठाए न बने

मौत की राह न देखूं कि बिन आए न रहे
तुम को चाहूं कि न आओ तो बुलाए न बने

बोझ वह सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वह आन पड़ा है कि बनाए न बने

`इश्‌क़ पर ज़ोर नहीं है यह वह आतिश ग़ालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

-मिर्ज़ा ग़ालिब 

Source:1

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